Zamane ki hakikat

ज़मानें की हकीकत से हकीकतन अनजान हूँ में कोई बसेरा नही मुझमें एक शहर वीरान हूँ में कुछ यादें कुछ रिश्ते दफन हें मुझमें चलता फिरता कब्रिस्तान हूँ में खुशियां देकर गम चुरा लेता हूँ अजनबियों को भी हमराज़ बना लेता हूँ फिर भी इल्ज़ाम लगे हें बेईमान हु में सांसे चल रही हें अब तो रस्मन अनस वेसे दिल से तो बेजान हूँ में तन्हाईयों में घिर कर पत्थर हो गया हूं पहले कभी लगता था इंसान हु में ज़माने की हकीकत से हकीकतन अनजान हूँ में

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